कौशलेंद्र झा
सरकारों के लिए मानवाधिकार की रक्षा करने का दंभ भरना प्रचलन सा हो गया है। किंतु, वास्तव में मानवीय मुल्यों के प्रति सरकारें कितनी गंभीर है? यह बड़ा सवाल है। सच तो ये हैं कि मनुष्य के जीवन के सार्वभौमिक हक की रक्षा करने में भी हमारी सरकारें नाकामयाब साबित हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति वर्ष 33,908 लोगों की हत्या, मानवाधिकार की सुरक्षा का दंभ भरने वाले देश के लिए एक गंभीर चुनौती नही, तो और क्या है?
मौत की आंकड़ों पर नजर डालें तो हमारा बिहार दुसरे ही पादान पड़ खड़ा मिलेगा। यहां प्रति वर्ष औसत 3,362 लोग मारे जातें हैं। जबकि, राष्ट्रीय स्तर पर अव्वल उत्तर प्रदेश सर्वाधिक मौत का गवाह बन चुका है। यहां प्रति वर्ष औसत 4,456 लोगों को विभिन्न वारदातों में अपनी जान गवांनी पड़ रही है। बिहार के बाद महाराष्ट्र में 2,837, आंध्रप्रदेश में 2,538 और मध्यप्रदेश में 2,441 लोगो की प्रति वर्ष हत्या होने के बावजूद हमारी सरकारें किस मुंह से मानवाधिकार संरक्षण की बातें करती है?
सरकारों के लिए मानवाधिकार की रक्षा करने का दंभ भरना प्रचलन सा हो गया है। किंतु, वास्तव में मानवीय मुल्यों के प्रति सरकारें कितनी गंभीर है? यह बड़ा सवाल है। सच तो ये हैं कि मनुष्य के जीवन के सार्वभौमिक हक की रक्षा करने में भी हमारी सरकारें नाकामयाब साबित हो रही है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रति वर्ष 33,908 लोगों की हत्या, मानवाधिकार की सुरक्षा का दंभ भरने वाले देश के लिए एक गंभीर चुनौती नही, तो और क्या है?
मौत की आंकड़ों पर नजर डालें तो हमारा बिहार दुसरे ही पादान पड़ खड़ा मिलेगा। यहां प्रति वर्ष औसत 3,362 लोग मारे जातें हैं। जबकि, राष्ट्रीय स्तर पर अव्वल उत्तर प्रदेश सर्वाधिक मौत का गवाह बन चुका है। यहां प्रति वर्ष औसत 4,456 लोगों को विभिन्न वारदातों में अपनी जान गवांनी पड़ रही है। बिहार के बाद महाराष्ट्र में 2,837, आंध्रप्रदेश में 2,538 और मध्यप्रदेश में 2,441 लोगो की प्रति वर्ष हत्या होने के बावजूद हमारी सरकारें किस मुंह से मानवाधिकार संरक्षण की बातें करती है?
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