मीनापुर कौशलेन्द्र झा
मिथिलांचल क्षेत्र का सबसे अहम सीट मधुनबी लोकसभा संसदीय क्षेत्र चुनाव से पहले ही चर्चा में है। हालांकि इस क्षेत्र के लिए पूर्व सांसद व कांग्रेसी उम्मीदवर डा. शकील अहमद ने राजद के अब्दुलबारी सिद्दीकी को दिये जाने को लेकर हामी भर दी है। मधुबनी पर निगाहें टिकी रहने की एक और वजह यह भी है कि वर्ष 1998 के बाद एक बार कांग्रेस तो दूसरी बार भाजपा विजयी होती रही है। हालांकि वर्तमान सांसद हुकुमदेव नारायण यादव तीन बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं लेकिन लगातार दूसरी बार जीतने का कारनामा नहीं दिखा सके हैं।
श्री यादव ने वर्ष 1977 में लोक दल के उम्मीदवार के रूप में सीपीआई के भोगेन्द्र झा को पराजित किया था। तब उन्हें 42.86 फीसदी वोट मिला था और भोगेन्द्र झा को 30.65 फीसदी। लेकिन वर्ष 1980 के कांग्रेसी लहर ने समाजवादियों और वामपंथियों दोनों को परास्त कर दिया। कांग्रेस के शफीकुल्लाह अंसारी ने सीपीआई के भोगेन्द्र झा को रोमांचक मुकाबले में हराने में सफलता हासिल की। रोमांचकता का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि श्री अंसारी को 39.3 फीसदी और श्री झा को 38.62 फीसदी वोट मिले थे। भोगेन्द्र झा ने वर्ष 1984 के कांग्रेसी लहर में भी कांग्रेस को भरपूर चुनौती दी। हालांकि उन्हें कांग्रेस के अब्दुल हन्नान अंसारी ने परास्त किया। इस बार जीत का अंतर दोगुने से अधिक था।
भोगन्द्र झा ने वर्ष 1989 में मधुबनी सीट जीतने में कामयाबी हासिल की। उन्होंने अब्दुल हन्नान अंसारी को करीब दोगुणा वोटों के अंतर से हराया। इसके बाद वर्ष 1991 में हुए चुनाव में भी श्री झा ने बिहार के मुख्यमंत्री रहे डा. जगन्नाथ मिश्रा को हराकर जीत हासिल की। जबकि वर्ष 1996 में सीपीआई के चतुरानन मिश्र ने भाजपा उम्मीदवार हुकुमदेव नारायण यादव को पराजित किया। वामपंथियों के लिए यह जीत आखिरी जीत साबित हुई। वर्ष 1998 में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच सीमित होकर रह गया। कांग्रेस के डा. शकील अहमद ने भाजपा के हुकुमदेव नारायण यादव को हराया। डा. अहमद को 39.78 फीसदी और श्री यादव को 37.48 फीसदी वोट मिले। हालांकि एक वर्ष बाद यानी वर्ष 1999 में हुए चुनाव में श्री यादव ने डा. अहदम को हराकर उनसे मधुबनी सीट छीन ली और केंद्र में मंत्री बनने में सफलता हासिल की। लेकिन वर्ष 2004 के चुनाव में एक बार फिर डा. अहमद बीस साबित हुए। श्री यादव पराजित हो गये।
वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में स्थिति बिल्कुल अलग थी। अलग इस मायने में कि मैदान में चार बड़े पहलवान जमे थे। राजद-कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं होने के कारण अब्दुल बारी सिद्दीकी मैदान में जुटे थे। डा. शकील अहमद के अलावा सीपीआई डा. हेमचंद्र झा भी मौजूद थे। विजयश्री भाजपा के हुकुमदेव नारायण यादव को मिली। उन्हें 1 लाख 64 हजार 88 वोट प्राप्त हुआ था। जबकि दूसरे नंबर पर राजद के अब्दुलबारी सिद्दीकी थे जिन्हें 1 लाख 54 हजार 165 वोट हासिल हुआ था। डा. शकील अहमद 1 लाख 11 हजार 423 मत मिले और वे तीसरे स्थान पर रहे।
बहरहाल, एक बार फिर वर्ष 2009 वाली स्थिति बनती जा रही है। पूरे दृश्य में एक अंतर है। जदयू और भाजपा अब अलग-अलग हैं। ऐसे में चुनाव परिणाम की कल्पना आसानी से की जा सकती है। हालांकि इसमें अभी कई और पेंच हैं, जिनकी सच्चाई लोगों के सामने आनी बाकी है।
मिथिलांचल क्षेत्र का सबसे अहम सीट मधुनबी लोकसभा संसदीय क्षेत्र चुनाव से पहले ही चर्चा में है। हालांकि इस क्षेत्र के लिए पूर्व सांसद व कांग्रेसी उम्मीदवर डा. शकील अहमद ने राजद के अब्दुलबारी सिद्दीकी को दिये जाने को लेकर हामी भर दी है। मधुबनी पर निगाहें टिकी रहने की एक और वजह यह भी है कि वर्ष 1998 के बाद एक बार कांग्रेस तो दूसरी बार भाजपा विजयी होती रही है। हालांकि वर्तमान सांसद हुकुमदेव नारायण यादव तीन बार इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं लेकिन लगातार दूसरी बार जीतने का कारनामा नहीं दिखा सके हैं।
श्री यादव ने वर्ष 1977 में लोक दल के उम्मीदवार के रूप में सीपीआई के भोगेन्द्र झा को पराजित किया था। तब उन्हें 42.86 फीसदी वोट मिला था और भोगेन्द्र झा को 30.65 फीसदी। लेकिन वर्ष 1980 के कांग्रेसी लहर ने समाजवादियों और वामपंथियों दोनों को परास्त कर दिया। कांग्रेस के शफीकुल्लाह अंसारी ने सीपीआई के भोगेन्द्र झा को रोमांचक मुकाबले में हराने में सफलता हासिल की। रोमांचकता का अनुमान इसी मात्र से लगाया जा सकता है कि श्री अंसारी को 39.3 फीसदी और श्री झा को 38.62 फीसदी वोट मिले थे। भोगेन्द्र झा ने वर्ष 1984 के कांग्रेसी लहर में भी कांग्रेस को भरपूर चुनौती दी। हालांकि उन्हें कांग्रेस के अब्दुल हन्नान अंसारी ने परास्त किया। इस बार जीत का अंतर दोगुने से अधिक था।
भोगन्द्र झा ने वर्ष 1989 में मधुबनी सीट जीतने में कामयाबी हासिल की। उन्होंने अब्दुल हन्नान अंसारी को करीब दोगुणा वोटों के अंतर से हराया। इसके बाद वर्ष 1991 में हुए चुनाव में भी श्री झा ने बिहार के मुख्यमंत्री रहे डा. जगन्नाथ मिश्रा को हराकर जीत हासिल की। जबकि वर्ष 1996 में सीपीआई के चतुरानन मिश्र ने भाजपा उम्मीदवार हुकुमदेव नारायण यादव को पराजित किया। वामपंथियों के लिए यह जीत आखिरी जीत साबित हुई। वर्ष 1998 में मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच सीमित होकर रह गया। कांग्रेस के डा. शकील अहमद ने भाजपा के हुकुमदेव नारायण यादव को हराया। डा. अहमद को 39.78 फीसदी और श्री यादव को 37.48 फीसदी वोट मिले। हालांकि एक वर्ष बाद यानी वर्ष 1999 में हुए चुनाव में श्री यादव ने डा. अहदम को हराकर उनसे मधुबनी सीट छीन ली और केंद्र में मंत्री बनने में सफलता हासिल की। लेकिन वर्ष 2004 के चुनाव में एक बार फिर डा. अहमद बीस साबित हुए। श्री यादव पराजित हो गये।
वर्ष 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में स्थिति बिल्कुल अलग थी। अलग इस मायने में कि मैदान में चार बड़े पहलवान जमे थे। राजद-कांग्रेस के बीच गठबंधन नहीं होने के कारण अब्दुल बारी सिद्दीकी मैदान में जुटे थे। डा. शकील अहमद के अलावा सीपीआई डा. हेमचंद्र झा भी मौजूद थे। विजयश्री भाजपा के हुकुमदेव नारायण यादव को मिली। उन्हें 1 लाख 64 हजार 88 वोट प्राप्त हुआ था। जबकि दूसरे नंबर पर राजद के अब्दुलबारी सिद्दीकी थे जिन्हें 1 लाख 54 हजार 165 वोट हासिल हुआ था। डा. शकील अहमद 1 लाख 11 हजार 423 मत मिले और वे तीसरे स्थान पर रहे।
बहरहाल, एक बार फिर वर्ष 2009 वाली स्थिति बनती जा रही है। पूरे दृश्य में एक अंतर है। जदयू और भाजपा अब अलग-अलग हैं। ऐसे में चुनाव परिणाम की कल्पना आसानी से की जा सकती है। हालांकि इसमें अभी कई और पेंच हैं, जिनकी सच्चाई लोगों के सामने आनी बाकी है।
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